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बुधवार, 11 जनवरी 2012

चन्द्रकांत देवताले का काव्य संसार : परिधि का ठाठ और हाशिए का उल्लास


(यह आलेख कविता समय -१ से सम्मानित कवि चन्द्रकांत देवताले तथा कुमार अनुपम पर केंद्रित पुस्तक के लिए लिखा गया था. पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है. अब यह आलेख ब्लॉग के पाठकों के लिए भी. देवताले जी की कुछ कवितायेँ यहाँ पढ़ी जा सकती हैं.)

किताब प्रतिलिपि प्रकाशन ने छापी है , मूल्य १००/- रुपये, डाक् खर्च हमारा, मंगाने के लिए  गिरिराज किराडू को या मुझे मेल करें.



समय के थपेडों से मानवीय मूल्य के अधोपतन ही देवताले की कविताओं के महत्वपूर्ण आस्था विषय हैं. वैश्विक बाजारीकरण की वज़ह से धीरे-धीरे कमतर होती जा रही मानवता उन्हें बेचैन करती है. आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक घिसरन के इस दौर में, वे, सबसे निचले पायदान पर स्थित आम आदमी के साथ दृढ़ता से खड़े रहने का स्वप्न देखते हैं. लेकिन इस वर्ग से दूर होते जाने का खेद उनकी ‘मेरी पोशाक ही ऎसी थी’ जैसी कविताओं में स्पष्ट दिखाई देता है. देवताले के कवि होने का यह महतवपूर्ण पहलू है. इस तरह की आत्म-टिप्पणियों से वह कविता से आत्मप्रवंचना के ऊपरी झोल को सीधे छांट देते हैं.
  • मराठी कवि प्रफुल्ल शिलेदार, फाल्गुन विश्व के २ अप्रैल-२०११ के अंक में (अनुवाद – पुष्पेन्द्र फाल्गुन)  


‘आग हर चीज़ में बताई गयी थी’ तक आते-आते चन्द्रकांत देवताले अकविता से लगातार बाहर आते दीखते हैं. इस बाहर आने की प्रक्रिया में उन्होंने अकविता की भाषा और कला के संस्कारों को ही नहीं बल्कि उसके मूल्यों को भी छोड़ा है. उनमें यह बदलाव वस्तुतः बदलते काव्य परिदृश्य के साथ-साथ बदलते चले जाने की प्रक्रिया की तरह घटित हुआ है. आठवें दशक की जनवादी कविता के काव्य परिदृश्य में हस्तक्षेप ने एक ऐसा वातावरण बनाया जिससे कई कवि स्वनिर्मित कटघरों से बाहर आ सके. देवताले की कविताओं में आये परिवर्तन के पीछे कोई गहरा आत्मसंघर्ष प्रकट नहीं होता....यथार्थवादी उपकरण उनके पास हैं यथार्थवादी दृष्टि नहीं...

  • राजेश जोशी, एक कवि की नोटबुक में चन्द्रकांत देवताले पर लिखे आलेख ‘फिर भी अंदरूनी है कुछ’ पेज संख्या १८२-१८८, से


देवताले जी के बारे में उनके (राजेश जोशी के) विचार जानने कियो उत्सुक था. पढकर हैरानी ही हाथ लगी. क्या देवताले जी ने सचमुच सिर्फ अकविता से ही शुरू किया था? वे कब और कैसे अकवि से कवि बन गए? क्या वे कवि बन भी पाए?....राजनीति मार्क्स का खूँटा पकड़ के बैठ जाने से नहीं होती...बिम्बों का लदान राजेश जोशी के यहाँ भी कम नहीं है. देवताले के बिम्ब तो बिम्ब जैसे भी नहीं हैं. उनमें रंग-गंध की कातरता भी उस स्तर पर नहीं है. वे राजेश जोशी की तरह नारे नहीं लगाते तो इसका अर्थ यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि वे नए समाज का स्वप्न नहीं देखते. हर सपना पोस्टर में नहीं बदला जा सकता. देवताले समाज और जीवन की भर्त्सना करते हैं और विश्लेषण नहीं, इस बात को मान लेना एक अपराध होगा....देवताले का रेटारिक असली है और जीवन के बीहड़ में भटकने से पैदा होता है...मुक्तिबोध के बाद मध्य प्रदेश में देवताले और विष्णु खरे से बड़ा कवि कोई नहीं हुआ. इस निष्कर्ष से सहमत होना सबके लिए मुमकिन नहीं होगा, लेकिन मेरे लिए यही हकीकत है.
  • शिरीष कुमार मौर्य, पर्वत राग-२००८, पेज-७० से


एक मायने में देवताले परिधि के कवि हैं - हाशिये के नहीं, परिधि के। निम्न मध्यम वर्गीय जीवन, रोज़मर्रापन का सौंदर्य, वंचना का प्रतिरोध और सत्ता केंद्रों से भौतिक और आत्मिक दूरी, इन सबके कारण प्रचुर और वैविध्यपूर्ण रचनात्मकता के बावजूद, आलोचना के केंद्रमुखी समुदाय ने परिधि के इस कवि को खास तवज्जो नहीं दी। लगभत समवर्ती धूमिल, और तत्काल अग्रज रघुवीर सहाय की तुलना में देवताले की यह उपेक्षा इसलिये भी थोड़ी अटपटी है क्योंकि उनकी कविता भी स्वातंत्र्योत्तर भारतीय नागरिक और उसके समाज के जीवन की विडंबनाओं का बखान है। इस नागरिक के बाहरी और भीतरी, निजी और सार्वजनिक दोनों ही संसार - एक ही डाल के 'दो सुपर्णों´ की तरह देवताले की कविता में अपने पंख फड़फड़ाते हैं- कभी अलग-अलग, और कभी एक साथ...
  • वीरेन डंगवाल, कबाडखाना ब्लॉग पर प्रकाशित आलेख से  

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(एक) कविता-अकविता और देवताले यानि आलोचना के दुराग्रहों की पड़ताल 


उज्जैन में अपने घर के पास एक चाय के ठीहे पर
तस्वीर संदीप नाइक के मोबाइल से 
चन्द्रकान्त देवताले हमारे समय के सबसे महत्वपूर्ण कवियों में से हैं. पचास के दशक के बिल्कुल अंतिम वर्षों से लिखना शुरू करने वाले चन्द्रकान्त देवताले पिछले साठ-पैंसठ वर्षों में लगातार सक्रिय रहे हैं..हड्डियों में छिपा ज्वर [१९७३], दीवारों पर खून से[१९७५], लकड़बग्घा हँस रहा है[१९८०], भूखंडतप रहा है [१९८२], रोशनी के मैदान की तरफ [१९८२], आग हर चीज़ में बताई गई थी[१९८७], पत्थर की बैंच [१९९६], उसके सपने[१९९७], इतनी पत्थर रोशनी [२००२], उजाड़ में संग्रहालय [२००३], पत्थर फेंक रहा हूँ मैं [२०१०], जहाँ थोड़ा सा सूर्योदय होगा (२०१०)  तथा आकाश की जात बता भइया [२०१०] जैसे कविता संकलनों के साथ उन्होंने १९८७ में मराठी से दिलीप चित्रे की कविताओं का ‘पिसाटी का बुर्ज’ नाम से और अभी बिल्कुल हाल में संत तुकाराम के अभंगो का अनुवाद किया है तथा मुक्तिबोध पर एक समीक्षात्मक किताब ‘मुक्तिबोध : कविता और जीवन विवेक’ (२००२) में लिखी है. लेकिन इस सुदीर्घ सक्रियता और पर्याप्त पढ़े जाने के साथ-साथ उनके हिस्से का एक सच यह भी है कि हिन्दी के सत्ता-प्रतिष्ठानों ने उन्हें कभी बहुत ज़्यादा महत्व देने लायक कवि नहीं समझा. १९७३ में पहचान सीरीज में छपे ‘हड्डियों में ज्वर’ की भूमिका में अशोक बाजपेयी का लिखा इस द्वैत का सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण भी है और स्रोत भी. साहित्य अकादमी पुरस्कार न मिलना तो एक बात है, देवताले को अकसर अकविता का कवि, विचारधारा विहीन होने से लेकर न जाने क्या-क्या कहा जाता रहा...बल्कि उससे भी आगे उनके नाम पर एक चुप्पी साधने का रिवाज है. वीरेन डंगवाल अगर उन्हें परिधि का कवि कहते हैं तो वह यूं ही नहीं. देवताले मध्यप्रदेश के भीतर और बाहर भी हमेशा परिधि के कवि रहे हैं. और परिधि पर होना उनका खुद का चयन है. सत्ता केन्द्रों से उनकी दूरी जनता से उनकी कुरबत के समानुपात में ही बढती चली गयी है. कवि हो जाना उनके लिए किसी विशिष्टताबोध से अधिक असुविधा है. और यह उनकी बेहद शुरुआती कविताओं में देखा जा सकता है. 

एक गाँव ने मुझे जन्म दिया
और एक धक्के ने
शहर में फ़ेंक दिया
और शहर ने मुझे कविताओं में उछालकर
कहीं का नहीं रखा 

कविताओं को लेकर उनमें सन्नद्धता बहुत है लेकिन अपने कवि होने को लेकर कोई खास आत्ममोह उनमें ढूंढें नहीं मिलता. एक खास किस्म की बेफिक्री और बेतकल्लुफी के साथ कस्बाई बातूनीपन उनकी कविताओं ही नहीं उनके व्यक्तित्व का भी निर्माण करता है. यहाँ यह कह देना अतिरिक्त तो होगा पर गैरज़रूरी नहीं कि देवताले हमारे समय के कुछ गिनती के उन कवियों में हैं जिनके कवि-व्यक्तित्व और निजी जीवन में किसी स्पष्ट फांक की तलाश कर पाना बेहद मुश्किल है...विचलन तो होंगे ही..हैं ही...लेकिन उतने ही जितना किसी ईमानदार पारिवारिक मनुष्य में हो सकते हैं...और इसे तो उन्होंने अपनी कविताओं में एकाधिक बार स्वीकार भी किया है.

‘आग हर चीज में बताई गयी थी’ में उनकी एक कविता है ‘मैं कौन खास’ –

यदि मेरी कविता साधारण है
तो साधारण लोगों के लिए भी
इसमें बुरा क्या मैं कौन खास
......
भारतवर्ष की गलियों में
जिस तरह गिरते-पड़ते, लड़ते-झगड़ते
छिप कर बीड़ी-फूंकते, गालियाँ बकते
बड़े होते हैं बच्चे बड़ा हुआ मैं भी

राजेश जोशी अपने पूर्वोद्धरित लेख में इसे ‘मालवा के उल्लास, उसके सांस्कृतिक-आंचलिक पहचान और उसकी भाषा की तप्त आत्मीयता’ के न होने के उदाहरण के रूप में अकविता के उस बचे हुए संस्कार के रूप में लक्षित करते हैं जिसमें वह किसी ‘भूगोल, इतिहास, परम्परा यहाँ तक कि किसी समाज या परिवार का निवासी भी खुद को नहीं मानती’! इसे पढ़ने के बाद मुझे लगा कि देवताले को लेकर हिन्दी आलोचकों और कवि-आलोचकों की रूढ़ धारणा और पूर्वाग्रहों ने उन्हें, यदि राजेश जोशी के ही इस लेख में लिखे शब्द उधार लूँ तो, अगर अंधा नहीं किया है तो रतौंधी का शिकार ज़रूर बना दिया है.

इस कविता को ज़रा गौर से पढ़ा जाय. इसका लोकेल क्या है? जो गलियाँ हैं वो क्या किसी अनजान भूगोल की गलियाँ हैं? कवि ने ‘भारत’ का प्रयोग जहाँ किया है वहाँ क्या मालवा के किसी अलंकारिक विवरण की गुंजाइश है? यह लोकेल की कैसी ‘मार्क्सवादी’ मांग है जिसकी महाकाव्यात्मक दृष्टि ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ की मांग करते हुए इस कविता में ‘मालवा के उल्लास, उसके सांस्कृतिक-आंचलिक पहचान और उसकी भाषा की तप्त आत्मीयता’ की मांग कर रही है? क्या इन ‘आंचलिक-सांस्कृतिक’ पहचानों से आगे निकल आजादी के बाद की राष्ट्रीय आर्थिक-सामाजिक नीतियों ने पूरे देश में ऎसी गालियाँ विकसित नहीं की हैं जहाँ का निम्न मध्यवर्गीय युवा इसी तरह की परिस्थितियों से दो-चार होते हुए बड़ा होता है? एक कविता जिसे भारत के किसी भी हिस्से का व्यक्ति अपनी कविता की तरह पढ सकता है, उसे एक विशिष्ट लोकेल की कविता बनाने की मांग क्या है? जिस मुक्तिबोध के यहाँ मालवा के भूगोल के होने की बात इस कविता के बरक्स कहते हुए इसे ‘‘भूगोल, इतिहास, परम्परा और बेघर’ कविता बताया गया है, उनकी ‘अँधेरे में’ कविता के वे जुलूस किस लोकेल के थे?

ज़ाहिर है कि यह किसी अकवि की कविता नहीं. यह एक ऐसे कवि की कविता है जिसके लिए कवि हो जाना रवि हो जाने से आगे की चीज़ नहीं बल्कि मनुष्य होने की चीज़ है. एक ऐसा मनुष्य जो अपने अगल-बगल की दुनिया में तमाम दूसरे लोगों के साथ रहता हुआ उन्हीं की तरह दीखता है, उनके जीवन से सीखता है और अपनी अर्जित की हुई अभिव्यक्ति की ताक़त से उनके दुःख-दर्द को कविता में व्यक्त करता है. ऐसे मनुष्य का गुस्सा नियंत्रित गुस्सा या कलात्मक गुस्सा हो पाना मुश्किल है...अधिक मुमकिन है उसका एक अस्पष्ट बडबडाहट में तबदील हो जाना. मैं इसे कविता के किसी गुण की तरह लक्षित नहीं कर रहा. लेकिन जो एक बहुत कैलकुलेटेड, कलात्मक और बारीक सा अमूर्त गुस्से को  कविता होने को कविता के एक ज़रूरी गुण की तरह बताते हैं, जिनके यहाँ कवि का क्रोध किसी कुलीन सभा में बजने वाले दर्द भरे संगीत सा सुख देता है उनको अगर चंद्रकांत देवताले को ‘काफी में विष देने’ की ‘सात्विक इच्छा’ जगती है, तो उसे समझा जा सकता है. देवताले की उपेक्षा में उस विष की व्यंजना को महसूसा जा सकता है. खैर, देवताले के प्रति अपने पूर्वाग्रह के बावजूद राजेश जोशी खुद प्रतिरोध को ऊंचे स्वरों में दर्ज कराने वाले प्रतिबद्ध कवि हैं इसीलिए वह विष देने की इच्छा नहीं पालते बल्कि पर्याप्त असहमति के बावजूद यह तो स्वीकार करते ही हैं कि ‘देवताले की कविता में हमारे समाज के ज़्यादा सजीव चित्र देखे जा सकते हैं’.

दरअसल, देवताले की कविताओं का एक सटीक पाठ उनके अकविता के कवि होने की स्थापना पर गंभीर सवाल उठाता है. देवताले की अगर बिल्कुल प्रारम्भिक कविताएँ देखें, जैसे उनके स्कूल की पत्रिका या फिर नई दुनिया और ज्ञानोदय में छपी पहली कविताओं में से एक मजदूर पर और बाक़ी दोनों प्रेम पर थीं. उसी दौर में उन्होंने गीत भी लिखे जिनमें से एक को नीरज ने एक प्रतिनिधि गीत संकलन में भी शामिल किया- वह प्रकृति पर था. उनके पहले संकलन ‘दीवारों पर खून से’ की ‘रचना प्रक्रिया से पूर्व’, ‘बहरेपन के अभिनय में’, ‘तुम’, ‘घर में अकेली औरत के लिए’, अंतिम दिन की अनुभूति, प्राथमिक स्कूल  जैसी तमाम कविताएँ हैं जिन्हें लाख कोशिश करके भी ‘अकविता’ नहीं कहा जा सकता है. हाँ इसी संकलन में ‘खाकी इमारत का पर्दा’, ‘पुनरागमन’, ‘वध’ या सीढ़ी पर अटका आदमी जैसी कविताएँ हैं जिनमें इस व्यवस्था में व्याप्त असमानता और वंचित वर्ग के साथ जारी अन्याय के प्रति उनका गुस्सा और उनका असंतोष बेहद तीखे लहजे में आया है.

हजारों रास्तों से निकल कर
एक घिनौना चेहरा
पूरे शहर की बत्तियाँ बुझा देता है                                                  
                                     (वध)     

इन कविताओं में उन्होंने शब्दों की किसी मितव्ययिता का सहारा नहीं लिया है. कई बार यह भी लगता है कि वह एक प्रलाप सा कर रहे हैं...गुस्से में बडबडा रहे हैं...कोई सुन नहीं रहा तो जैसे खुद से संवाद कर रहे हैं. लेकिन यह कोई उद्देश्यहीन या सब कुछ का नकार करने वाला उद्देश्यहीन नकली गुस्सा नहीं है.

इस धत-करम को मिटाने के लिए
कोई कारगर तरकीब सोचो
बात पर पत्थर मारने से
गोबर को करुणा में बदलना
यदि संभव हो तो
कंडे का निर्यात करते हुए हम कितने सुखी होते                     
                                       (सीढ़ी पर अटका हुआ आदमी)

बाद के संकलनों में ‘लकड़बग्घा हंस रहा है’ में भी जिन कविताओं के सहारे उन पर यह आरोप लगाया जाता है, वे अपनी वाचालता के बावजूद निरुद्देश्य या विकल्पहीनता के विकल्प का स्वीकार करने वाले (अ)कवि नहीं लगते. ‘इस पठार पर’ जैसी कविता में तो, जिसे इस खांचे में अकसर रखा जाता है, मालवा का वह लोकेल अपनी पूरी ताकत के साथ आया है जिसकी अनुपस्थिति की बात राजेश जोशी करते हैं. हाँ इसमें मालवा के हरे-भरे खेत या दूध की नदियों की जगह वहाँ की वे क्रूर सच्चाइयाँ हैं जिन्हें कोई जनपक्षधर कवि अनदेखा नहीं कर सकता. यहाँ परम्परा की शिकार बांछड़ा समुदाय की वे औरते हैं जिनके लिए देह का सौदा उनके पति ही करते हैं, अफीम के खेत हैं, ढोर-ढांगर और स्त्री-पुरुषों का हाहाकार है, उनकी आँखों में भय की परछाई है और इन सबसे गुजरते हुए वह निस्पृह नहीं हैं, उन्हें उस पठार के शोषित जन ‘इस पठार पर/अपने मौजूदा मुकद्दर के खिलाफ/ हर रोज कुछ दे रहे हैं’ और वह ‘उसको भट्ठी में पकाकर/ उन्हें वापस करने में लगे हैं. इसीलिए  कविता के अंत में किसी निराश विकल्पहीनता की जगह नहीं पहुँचते बल्कि यह देख पाते हैं कि ‘अब इस पठार पर/आहिस्ता-आहिस्ता बदलता जा रहा है/मुट्ठियों का अर्थ. ज़ाहिर है कि यह (अ) कविता नहीं बल्कि जनता के पक्ष में खडी कविता है. इसी तरह लकडबग्घे का हंसना उनके यहाँ सिर्फ एक दहशत का कौतुक नहीं बल्कि ‘चुनौती’ है.

उनकी लंबी कविता ‘भूखंड तप रहा है’ अपने कथ्य को उस तरह साध नहीं पाती जैसी कई अन्य समकालीन लंबी कविताएँ. यहाँ भाषा से काम लेने का प्रयास अधिक दिखाई देता है और साथ ही जिस तरह बिम्बों का प्रयोग किया गया है कई बार वह अतिरिक्त और असम्बद्ध भी लगते हैं. लेकिन इस कविता का त्रिभुवन कोई इतिहास-भूगोल-परम्परा हीन वर्ग-मुक्त मनुष्य नहीं है. त्रिभुवन का आत्मसंघर्ष, उसका क्रोध, उसकी सक्रियता...यह सब कुछ उस दौर के एक असंतुष्ट मनुष्य की गतिविधियाँ हैं. इसकी जड़ें उस दौर की सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों में ढूंढें जा सकते हैं. वह सर्वहारा वर्ग का ही प्रतिनिधि है. वह बच्चों को नई बारहखडी सिखा रहा है जहाँ अ से अनार नहीं अनाज है और आ से आग. वह न्याय-व्यवस्था, पुलिस, शासन से लेकर समाज के भीतरी तहों तक में उपस्थित विसंगतियों को और वहाँ हो रही उथल-पुथल को दर्ज करने की कोशिश कर रहा है. इससे गुजरते हुए आपको देवताले के प्रिय कवि मुक्तिबोध का डोमाजी उस्ताद याद आना स्वाभाविक है. (वैसे खुद डोमाजी उस्ताद उनकी कविताओं में बार-बार आता है) वह ब्रह्मराक्षस का अगर शिष्य नहीं है तो ब्रह्मराक्षस भी नहीं है. इस लंबी कविता में अगर देवताले भटके हैं या इसे बेहतर तरीके से साध नहीं पाए हैं , तो वह उनकी सीमा हो सकती है, नीयत नहीं. यहाँ अकविता का सर्व निषेधवाद नहीं है. यह कविता अकविता की परम्परा के निर्वाह की जगह मुक्तिबोध की लंबी कविताओं की परम्परा के निर्वाह का प्रयास करती नज़र आती है. न तो यह कविता अन्याय के खिलाफ किसी प्रतिशोध का नकार करती है और न ही नैतिकता के निषेध के नाम पर जगदीश चतुर्वेदी या सौमित्र मोहन जैसे कवियों की तरह सेक्स कविताओं की दलदल में फंसती है. बल्कि स्त्री के प्रति देवताले की विराट, उदात्त और आदर भरी संवेदना को उनकी शुरुआती कविताओं से लेकर हाल तक कि कविताओं में लक्षित किया जा सकता है, जिस पर मैं लेख के अगले हिस्से में विस्तार से लिखूंगा.    

स्पष्ट है कि देवताले को अकविता का कवि कहने के पीछे उनकी काव्य प्रवृतियों से अधिक हिन्दी की आलोचना में व्याप्त पूर्वाग्रह, गुटबाजी और संगठनों की राजनीति थी. दरअसल, देवताले की कुछ कविताएँ उन दिनों जगदीश चतुर्वेदी के संपादन में निकलने वाली पत्रिका अकविता में छपी थी. इस पत्रिका को ‘अकविता आंदोलन’ का घोषणापत्र माना जाता था. हालाँकि उसी दौर में उनकी कविताएँ दूसरी पत्रिकाओं में भी लगातार छपती रहीं. साथ ही देवताले सत्तर के दशक से ही प्रगतिशील लेखक संघ के कार्यक्रमों में भागीदारी के बावजूद लेखक संगठन में शामिल नहीं हुए, लेकिन वह अकविता आंदोलन में भी कभी उस तरह से शामिल नहीं रहे.

यहाँ यह कहने में भी मुझे कोई हिचक नहीं है कि देवताले कि कविताओं में अकविता के कुछ मुहावरे दिखाई भी देते हैं, लेकिन यह भाषा के स्तर पर एक हद तक है कंटेंट के स्तर पर लगभग अनुपस्थित. भाषा का यह सवाल देवताले की प्रयोग़धर्मिता से भी जुड़ा है. इस प्रयोगधर्मी प्रवृति को उनके पहले से लेकर आखिरी संकलन और हाल की कविताओं तक देखा जा सकता है. चन्द्रकान्त देवताले के पचहत्तर वर्ष पूरे होने पर लीलाधर मंडलोई ने शुक्रवार के दिसंबर,२०११ के अंक में लिखा है – ‘देवताले अपनी भाषा को जोखिम की सीमा तक जाकर तोड़ते हैं. असफल होने की हद तक प्रयोगधर्मिता उनके स्वभाव का स्थाई भाव है’. राजेश जोशी जिस ‘बिम्बों की लदान’ की बात करते हैं वह भी प्रयोगधर्मिता के प्रति उनके इसी अतिरिक्त आग्रह के कारण है. लेकिन उनके बिम्ब कविता के स्वर को धीमा करने वाले या प्रतिरोध को अस्पष्ट बनाने वाले वे बिम्ब नहीं हैं जिनको खारिज करके सपाटबयानी की वकालत सत्तर के दशक में की जा रही थी. बल्कि इसके उलट सच तो यह है कि उनके बिम्ब अकसर कविता के स्वर को और लाउड बनाते हैं.

यह भी सच है कि देवताले उस तरह से वामपंथी कवि नहीं हैं. वामपंथ उनके यहाँ जनपक्षधरता के कारण एक स्वाभाविक मूल्य की तरह अधिक आता है न कि बौद्धिक संस्कार की तरह. वह जनता के दुःख-दर्द, उसक गुस्से, उसके असंतोष को आवाज़ देने वाले कवि हैं और इसीलिए सहज रूप से प्रतिरोध की इस विचारधारा के साथ खड़े नज़र आते हैं. लेकिन यह तो हिन्दी के साहित्यिक वाम की एक आम प्रवृति है. फर्क शायद इतना कि देवताले जहाँ १९९४ के पहले तक किसी वाम लेखक संगठन के हिस्सा नहीं थे, बाक़ी लोगों ने संगठन का विकल्प चुना. वैसे यहाँ यह याद दिलाना अप्रासंगिक नहीं होगा कि प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के कार्यक्रम में छत्तीसगढ़ के तत्कालीन पुलिस अधिकारी द्वारा आयोजित कार्यक्रम में मुख्यमंत्री और संस्कृति मंत्री के बिना पूर्व सूचना के आने पर बड़े-बड़े लोग चुप्पी साधे रहे, देवताले ने न केवल उस कार्यक्रम में अपना विरोध दर्ज कराया बल्कि लौटकर अपनी कविता में वह प्रतिरोध दर्ज भी किया. लेकिन जिस साहित्यिक परिदृश्य में लोगों का मूल्यांकन उनके लिखे और व्यक्तिगत जीवन में लिए गए वास्तविक निर्णयों की जगह सांगठनिक सदस्यताओं, व्यक्तिगत संबंधों और पूर्वाग्रहों से तय होता हो...वहाँ इन बातों का क्या सच में कोई अर्थ है?


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गुस्से और संबद्धता के कवि देवताले  : संवेदना के स्रोतों की तलाश



मरोड़ खाती मितली के बीच
मैं सोचने लगा
कैसे टेंटुआ मसका जाय
आंकड़ो के इस दुभाषिये का
जो सरेआम
गलत तर्जुमा कर
कीचड को कमल
और अँधेरे में
भिनभिनाते मच्छरों की आवाज़ को
धूप में बजता सितार
बता रहा है.                               
(‘प्राथमिक स्कूल’, ‘दीवारों पर खून संकलन से)

 



मेरी किस्मत में यही अच्छा रहा
कि आग और गुस्से ने मेरा साथ कभी नहीं छोड़ा  
और मैंने उन लोगों पर कभी यकीन नहीं किया
जो घृणित युद्ध में शामिल हैं
और सुभाषितों से रौंद रहे हैं
अजन्मी और नन्हीं खुशियों को   

(‘मेरी किस्मत में यही अच्छा रहा’,  ‘आकाश की जात बता भैया’ से)


  


जबड़े जो आदमी के माँस में
गड़ा रहे हैं दाँत
यदि उन पर चोट होती है कविता
तो मैं कविता का एहसानमंद हूँ.     
(दीवारों पर खून से)



और मैं
अपने लोगों की तरफ दौडता हूँ
सोचते हुए
ज़ुबान से बढ़कर
इस वक़्त कोई बड़ी ताक़त नहीं है


(‘प्रहसन प्रारंभ होने के पूर्व ही’, ‘रोशनी के मैदान की तरफ से’ संकलन से)

ईश्वर होता तो इतनी देर में उसकी देह कोढ़ से गलने लगती
सत्य होता तो वह अपनी न्यायधीश की
कुर्सी से उतर जलती सलाखें आँखों में खुपस लेता
सुन्दर होता तो वह अपने चेहरे पर
तेज़ाब पोत अंधे कुएं में कूद गया होता. लेकिन...
(‘लकडबग्घा हंस रहा है’ में ‘थोड़े से बच्चे और बाक़ी बच्चे’ से )



भवन शानदार है
आवाज़ अच्छी गूँज रही है
शमशेर कविता पढ रहे हैं
और राजाओं के बीच खींचमतान -मची है
कुर्सियों को लेकर
मैं चीखकर कहता हूँ शमशेर जी से
बंद कर दीजिए कविता पढ़ना
शमशेरजी बंद कर दीजिए तुरन्त

(‘बेटहोफेन का किस्सा’, ‘आग हर चीज़ में बताई गयी थी’ से)  

– ‘

ये कविताएँ मैंने देवताले जी के विभिन्न संकलनों से बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के चुन ली हैं. कथ्य के स्तर पर अपनी पहली प्रकाशित कविता से लेकर अभी हाल तक उनकी कविताओं में गुस्सा, चिढ़, प्रतिरोध और जनता के सुख-दुःख-असंतोष में शामिल होने की ज़िद एक स्थाई भाव की तरह आती है. एक सतत असंतोष की भावना उनके कवि को संचालित करती दिखती है. पूंजीवादी अर्थव्यवस्था तथा जाति, धर्म और लैंगिक भेदभाव वाली प्रतिगामी शोषक सामाजिक संरचनाओं की विडंबनाए और विसंगतियाँ उनकी कविता में प्रमुखता से जगह पाती हैं. वह हिन्दी के उन गिने-चुने कवियों में से हैं जिन्होंने लगातार न्याय व्यवस्था को कटघरे में खड़ा करने का काम किया है. लेकिन जहाँ इन कविताओं में वह व्यवस्था की इन विसंगतियों को बखूबी प्रश्नांकित करते हैं, उनकी कविताएँ इस सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के बरक्स कोई विराट प्रतिसंसार रचने में सफल नहीं होतीं. उनकी असहमतियाँ और उनके आधार तो उनकी कवितायें रेशा-रेशा साफ़ कर देती हैं और इस तरह सत्ता के झूठ और प्रपंच को तार-तार कर देती हैं, लेकिन इस व्यवस्था के समूल विनाश के आगे एक नयी व्यवस्था का स्वप्न दिखाने में उतनी सफल नहीं हो पातीं. ये कविताएँ स्वप्न तो दिखाती हैं, लेकिन वह अकसर धुंधला-धुंधला सा होता है. यही वज़ह है कि उनकी लंबी कविताएँ बड़ी कविताएँ नहीं हो पातीं. वह ‘भूखंड के तपने’ की सटीक पहचान तो करते हैं लेकिन इस आग से पाक पाने वाले भविष्य की सटीक पहचान नहीं.

इसकी जड़ें देवताले की उस राजनीतिक अवस्थिति में हैं जिस पर मैंने पहले खंड में बात की है. ऐसा नहीं कि वह कोई अराजनीतिक कवि हैं. ऐसा भी नहीं कि वह अराजकतावादी हैं. लेकिन यह ज़रूर है कि वैकल्पिक व्यवस्था को लेकर वह बहुत साफ़ नहीं है. सीधे कहूँ तो विचारधारा के स्तर पर देवताले समाजवाद, वामपंथ या किसी अन्य वैकल्पिक विचारधारा के साथ अपने कई अन्य समकालीनों या परवर्ती कवियों की तरह जुड़े नहीं दिखाई देते. वामपंथ से उनका जुड़ावा बौद्धिक स्तर पर कम और संवेदना के स्तर पर अधिक है. दरअसल संवेदना उनके काव्य व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा है. उनकी कविताएँ तर्क या बौद्धिकता से अधिक संवेदना से ही संचालित होती हैं. वही संवेदना उनके भीतर इस गुस्से और ज़िद को बनाए रखती है. इस संवेदना का भूगोल इतना व्यापक है कि वह मनुष्यों तक सीमित नहीं. वह ‘लाल कलगी वाले मुर्गे’ और ट्रक में लदते बकरों (ट्रक में बकरों की लदान) के लिए भी कविता संभव करते हैं और उसे उसके पालकों के जीवन की विडम्बना से जोड़ देते हैं.

यहाँ यह भी कह देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि अपनी अंतर्भूत संवेदना से संचालित होने के कारण और जनता के साथ अपने समझौताहीन प्रतिबद्धता के कारण वह अपनी पूरी काव्ययात्रा में कभी अपने स्टैंड से समझौता करते नज़र नहीं आते. आलोक धन्वा जैसे वैचारिक रूप से गहरे संपन्न और प्रतिबद्ध कवि नक्सलवादी उभार के दौर में लिखी अपनी कविता ‘जिलाधीश’ को एक अरसे बाद ‘व्यवस्था विरोधी नहीं’ कहते नज़र आते हैं, लेकिन चन्द्रकांत देवताले को कभी ‘लकड़बग्घे’ की पहचान बदलते नहीं देखा गया. मेरा इरादा फिलहाल आलोक धन्वा की प्रतिबद्धता को प्रश्नांकित करना भर नहीं है, मेरा सवाल यह है कि वास्तविक जीवन के इस समझौताविहीन गुस्से, ज़िद और संबद्धता को क्या हमेशा कंधे पर लगे फीतों के रंग से फीका माना जाना चाहिए? मेरा सवाल यह है कि जो कवि जीवन भर साहित्यिक सत्ता केन्द्रों से दूर रहते हुए आलोचकों की अवहेलना झेलते हुए भी लगातार जनता के पक्ष को अपनी कविता में आवाज़ देता है, उसे प्रतिबद्ध क्यूँ नहीं माना जाना चाहिए? इसलिए कि उसके पास उन लोगों के वे प्रमाणपत्र नहीं हैं जिनके बिना मुक्तिबोध को हिन्दी का संसार काम का नहीं मानता? बौद्धिक और संवेदनात्मक दोनों स्तरों कि जुगलबंदी तो सोने में सुहागा होती है, पर इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि बौद्धिक स्तर की प्रतिबद्धता अनिवार्यतः संवेदनात्मक स्तर की जन पक्षधरता से eनात्मक स्तर की जन पक्षधरता सरे बेहतर या उसका विकल्प होती है.

यहाँ यह भी समझना होगा कि ऐसा भी नहीं कि हिन्दी की इस आलोचना ने केन्द्र की जगह हमेशा मार्क्सवादी कवियों के लिए आरक्षित रखी. रघुवीर सहाय, राजकमल चौधरी, धूमिल, विजयदेव नारायण साही, केदार नाथ सिंह जैसे तमाम गैर-मार्क्सवादी ही नहीं अपितु मार्क्सवाद-विरोधी कवि ‘कविता के नए प्रतिमान’ से लेकर अस्सी के दशक के स्वघोषित चौबीस कैरेट शुद्ध वामपंथी कवियों/आलोचकों के प्रिय रहे और हिन्दी के सत्ता केन्द्र के नाभिक में उनकी उपस्थिति निरंतर बनी रही. लेकिन देवताले जैसे कवि, जिन्होंने कभी मार्क्सवाद का विरोध नहीं किया और खुद को वामपंथी कहाने से गुरेज नहीं किया, इस केन्द्र से बाहर परिधि पर रहे. और वीरेन डंगवाल जब अरसा बाद उन्हें ‘हाशिए का नहीं परिधि का कवि’ कहते हैं तो इसे गंभीरता से समझे जाने की ज़रूरत है. देवताले की कविताओं की ताक़त और उनका प्रभाव इतना जबरदस्त है कि मुख्यधारा की आलोचना की शातिर अवहेलना के बावजूद वह अचर्चित नहीं रहे. वह परिदृश्य से बाहर नहीं किये जा सके. उनकी रचनात्मकता को खंडित नहीं किया जा सका. उनकी प्रतिबद्धता कहीं डगमगाई नहीं. अपनी स्पष्ट नापसंदगी के बावजूद अशोक बाजपेयी को पहचान सीरीज में उन्हें शामिल करना पड़ा और देवताले की मुख्य धारा की कविता में उपस्थिति लगातार बनी रही तथा मज़बूत होती गयी. इस तरह वे मुख्यधारा के बाहर किसी हाशिए पर होने की जगह लगातार केन्द्र से एक दूरी बनाए हुए परिधि पर मजबूती से उपस्थित रहे. कहना न होगा कि इस केन्द्र और परिधि की निर्धारक साहित्यिक या वैचारिक अवस्थितियाँ उतनी नहीं हैं जितने कि साहित्येतर और विचारेतर कारण.

इस परिधि पर इतने लंबे समय तक जमे रहने और तमाम उपेक्षाओं के बावजूद डगमगाने से बचे रहने की ताक़त का स्रोत है अपने  अपने लोक और अपने जन से उनकी गहरी संबद्धता. मालवा, निमाड, बुंदेलखंड और उसका लोकेल उनकी कविताओं में सुगंध की तरह बिखरा पड़ा है. यह प्रकृति के निरपेक्ष वर्णन या भावुक लगाव की तरह दर्ज नहीं होता जहाँ सब अच्छा ही अच्छा है...जहाँ सब द्वंद्वहीन रूप से सुन्दर है. यहाँ मालवा अपने पूरे रूप-गंध और विकृतियों और विसंगतियों के साथ मौजूद है. यहाँ मालवा दुनिया से अलग कोई विशिष्ट भूखंड नहीं है, बल्कि देश और दुनिया अपरिहार्य रूप से जुड़ा हुआ हिस्सा है जिसके हालात दिल्ली, भोपाल और वाशिंगटन के निर्णयों और मंशाओं से निर्धारित होते हैं. देवताले की कविताओं का लोकल वह है जिसकी व्यंजना ग्लोबल है. यह राजनीति से असम्पृक्त नहीं बल्कि पूरी तरह से राजनैतिक लोक है, जिसकी विसंगतियाँ, जिसकी विडंबनाएं वैश्विक सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक संरचनाओं से जुड़ी हैं और इस तरह देवताले इनको प्रश्नांकित करते हुए पूंजीवाद की व्यापक परियोजनाओं को प्रश्नांकित करते हैं. और यह प्रश्नांकन कतई निरर्थक, पलायनवादी, सर्व निषेधवादी नहीं.

देवताले की एक कविता है – ‘मेरी पोशाक ही ऐसी थी’. इस कविता को पढते हुए मुझे नागार्जुन की कविता ‘तुम्हें घिन तो नहीं आती’ की याद आती है. जहाँ नागार्जुन अपने समकालीन प्रतिबद्ध साथियों से यह सवाल पूछते हैं, वहीं देवताले इस कविता में इसी परिघटना को बस में चल रही आदिवासी महिला की नज़र से देखते हैं. बस में खडी आदिवासी महिला की गोद से लेकर अपनी गोद में बिठाई गयी  लड़की को देखकर कवि को अपनी बेटी की गंध महसूस होती है.

उसका माथा सूंघते हुए मुझे लगा
यही है बेटी कि गंध
और मैं याद करते हुए न जाने क्या-क्या
भूल गया सबकुछ
और मेरे भीतर आदमी के कलेजे की जगह
धड़कने लगा बाप का दिल
फिर यही सोचकर दुःख हुआ मुझे
कि बच्ची को शायद ही मिली होगी
मुझसे बाप की गंध
मैं क्या करता मेरी पोशाक ही ऎसी थी
मेरा जीवन ही दूसरा था.

इस कविता को अलग से किसी विश्लेषण की ज़रूरत नहीं है. यह कविता नागार्जुन की पूर्वोद्धरित कविता का विस्तार करती है, जहाँ कवि महसूस कर पा रहा है कि सिर्फ सर्वहारा वर्ग से दूरी ही बुद्धिजीवी वर्ग को उससे अलग नहीं करती बल्कि इस व्यवस्था में मध्यवर्गीय जीवन जीने वाला बुद्धिजीवी अपने ‘पोशाक’ से ही उसके लिए अजनबी होता चला जाता है. देवताले का कवि इस अजनबियत की न केवल पहचान करता है, बल्कि लगातार इसके खिलाफ खुद को लगातार सावधान भी करते हैं. इस कविता में जो एक और चीज़ मैं लक्षित करना चाहता हूँ वह यह कि देवताले की संवेदना यहाँ दो स्तर पर घटित होती है – पहली कि यह एक परेशान माँ की गोद में बच्ची को देखकर और दूसरा उस बच्ची को अपनी गोद में लेकर उसे अपनी पुत्री की तरह महसूस कर...

स्त्री और परिवार देवताले के काव्य संसार की संवेदना का अक्षय संसार हैं और उन पर बात किये बिना उनकी कविताओं पर कोई टिप्पणी अधूरी ही रहेगी.

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देवताले की कविता और स्त्रियाँ : एक कृतग्य पुरुष का आख्यान


देवताले के काव्यजगत में स्त्रियाँ आद्योपांत उपस्थित हैं. स्त्री के प्रति जितनी व्यापक, उदात्त और संवेदनशील दृष्टि उनके पास है, हिन्दी में शायद किसी दूसरे कवि के पास नहीं. अभी हाल में ही युवा कवि शिरीष कुमार मौर्य ने उनकी स्त्री विषयक कविताओं का एक संकलन ‘धनुष पर चिड़िया’ तैयार किया है. हिन्दी साहित्य में किसी स्त्री विमर्श के प्रवेश के पहले ही देवताले और रघुवीर सहाय जैसे कवियों की कविताओं में स्त्री और उसका संसार अपने आदमकद रूप में पसरा पड़ा है. लीलाधर मंडलोई ने बिल्कुल सटीक टिप्पणी की है कि ‘कदाचित स्त्री और बच्चों की इतनी मार्मिक छवियाँ किसी के पास नहीं.

देवताले की स्त्री विषयक कविताओं पर बात करने से पहले मैं दो बातें स्पष्ट करना चाहता हूँ – पहली यह एक पुरुष की कविताएँ हैं और उन्हें कभी परकाया प्रवेश की ज़रूरत महसूस नहीं होती. प्रफुल्ल शिलेदार के पूर्वोद्धरित उद्धरण से उनके शब्द उधार लूँ तो वह अंतर्बाह्य के कवि हैं. और दूसरी यह कि ये एक कृतग्य और भावुक पारिवारिक कवि की कविताएँ हैं. परिवार उनकी कविताओं में जब भी आता है देवताले एक पारिवारिक पुरुष में तबदील हो जाते हैं. ‘लकडबग्घा हंस रहा है’ में एक कविता है – ‘बबुआ और गुलामजादे’. यहाँ एक अधिकारी की सेवा में तैनात चार नौकर हैं जिनकी नौकरी का हिस्सा है साहब के बबुआ को खिलाना. साहब के घर पर अपने मनुष्यत्व को गिरवी रख देने वाले इन पुरुषों से देवताले सवाल करते हैं –

पर घर आते ही जोरू पर
तुम टूट पड़ते हो बाज की तरह
मर्द, बास्साह, ठाकुर बन तन जाते हो
अपने माँस के लोथड़ों खातिर
आदमी बनने में भी शर्म आती है
मूंछें शायद इससे ही कट जाती हैं

और फिर वह सवाल करते हैं ….

कन्हैया, मोती, मांगू,उदयराम
अपनी जोरू अपने बच्चे
क्यों तुमको दुश्मन लगते हैं?

देवताले जी के  घर पर उनके साथ लेखक
तस्वीर संदीप नाइक के मोबाइल से  
इस विडंबना की पहचान देवताले जैसा संवेदनशील पारिवारिक कवि ही कर सकता है. इस आलेख के आरंभ में मैंने उनके संकलन ‘लकडबग्घा हंस रहा है’ की एक कविता ‘इस पठार पर’ का ज़िक्र किया था जिसमें वह मालवा के अफीम पैदा करने वाले इलाके की पारंपरिक रूप से वैश्यावृति करने वाली बांछड़ा महिलाओं के जीवन की भयावह विडंबना का ज़िक्र करते हैं. इस कविता में उन स्त्रियों के साथ अनाज काटती, कोयला बीनती श्रमजीवी औरतें पत्थर तोड़ते, अफसरों के घर पर उनके घरेलू काम करते, खेतों में खटते पुरुषों के साथ उपस्थित हैं, जिनकी खुशी बस ‘चकमक पत्थर की चमक जितने देर की होती है’ और देवताले इस ज़ुल्म के खिलाफ आहिस्ता-आहिस्ता बदलते जा रहे मुट्ठियों के अर्थ को देख पा रहे हैं- ज़ाहिर है ये संयुक्त मुट्ठियाँ है – स्त्री-पुरुष श्रमजीवियों की संयुक्त मुट्ठियाँ. उनका यह आह्वान कैफी आजमी की प्रसिद्द नज़्म ‘उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे’ की याद दिलाता है. महिलाओं का श्रम और उसकी उपेक्षा देवताले की कविताओं में बार-बार आते हैं. और शायद इसीलिए स्त्रियों के प्रति वह एक गहरे कृतज्ञता के भाव से भरे हुए हैं. अपने कस्बाई समाज में घर-परिवार-चूल्हे-चौके की आदमखोर चक्की में पिसती औरत उन्हें व्यग्र करती है. बिल्कुल शुरुआती दौर की उनकी एक कविता है – ‘घर में अकेली औरत के लिए’. बाहर कमाने गए पुरुष की प्रतीक्षा में घर की चहारदीवारी के अंदर घुटती औरत से वह कहते हैं कि ‘तुम नहाओ जी भर/ आईने के सामने कपडे उतारो/आईने के सामने पहन लो फिर/ आईने को देखो इतना कि वह/ तड़कने-तड़कने को हो जाए/पर उसके तड़कने के  पहले/ अपनी परछाई हटा लो/घर की शान्ति के लिए यह ज़रूरी है.’ ‘लकडबग्घा हंस रहा है’ में उनकी बहुचर्चित कविता ‘औरत’ है, जहाँ कपड़े पछींटती, आटा गूंथती, सूप फटकती, दूध पिलाती, श्रम में संलग्न ‘खर्राटे भरते आदमी के बगल में निर्वसन जागती औरते हैं. कविता का अंत इन पंक्तियों से होता है –

एक औरत का धड़
भीड़ में भटक रहा है
उसके हाथ अपना चेहरा ढूंढ रहे हैं
उसके पाँव
जाने कबसे   
सबसे
अपना पता पूछ रहे हैं.

देवताले इन बेचेहरा और बेरास्ता महिलाओं के लिए भीतर तक करुणा से भरे हैं. इसीलिए वह जब माँ पर लिखते हैं तो कहते हैं कि ‘माँ पर नहीं लिख सकता कविता’, बेटियों पर कविता लिखते हुए डर जाते हैं, ‘बालम ककड़ी बेचने वाली लड़कियाँ’ लिखते हुए उन्हें याद आता है कि ‘कवि तो इस समय लेटे हुए अख़बार पढ रहे होंगे’ और खाना परोसती निम्न मध्यवर्गीय माँ के लिए लिखते हैं – ‘कम खुदा न थी परोसने वाली’. ऎसी तमाम कविताओं कि बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के उनके संकलनों से उद्धरित किया जा सकता है. लेकिन उद्धरणों का ढेर लगाने की जगह मैं इन कविताओं की मूल प्रवृति पर थोड़ी सी बात करना चाहूँगा.

जैसा कि मैंने पहले कहा कि ये एक पुरुष की कविताएँ हैं. इनमें स्त्री के उस श्रम के प्रति एक करुणा और एक क्षोभ तो है, लेकिन इससे आगे जाकर स्त्री को चूल्हे-चौकी से आजादी दिलाने की ज़िद नहीं. जहाँ औरत आती है वहाँ सुस्वादु भोजन मन से खिलाती हुई (माँ के सन्दर्भ में और फिर पत्नी के सन्दर्भ में भी इन कविताओं में स्नेह से भोजन परसने के दृश्य आते हैं) औरत सामने आती है. उसके श्रम से कातर पुरुष ने कभी यह नहीं कहा कि आ चूल्हे की जिम्मेवारी हम बाँट ले. इसीलिए वह भावुक और कृतग्य पुरुष के रूप में ही सामने आते हैं, एक सहयात्री साथी पुरुष के रूप में नहीं. यह उनकी स्त्री विषयक कविताओं की एक बड़ी सीमा है.

लेकिन यहाँ यह कहे बिना बात पूरी नहीं होगी कि देवताले की कविताओं में स्त्रियों की जितनी उदात्त और मानवीय छवियाँ हैं उतनी उन तमाम कवियों के यहाँ नहीं जिन्हें स्त्री संबंधी कविताओं के लिए लगातार रेखांकित किया गया. उनका कवि कृतग्य पुरुष है जो अपनी पारिवारिकता को विस्तार देते हुए अपने चतुर्दिक उपस्थित स्त्रियों की विडंबनाओं की सटीक पहचान ही नहीं करता अपितु उसे लगातार प्रश्नांकित करता है. यह समकालीन स्त्री विमर्श की प्रगतिशील धारा की स्वाभाविक पूर्व-पीठिका है.

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और अंत में...

चन्द्रकांत देवताले के तमाम संकलनों और उन पर लिखी गयी जो आलोचनाएं उपलब्ध हो सकीं उन्हें पलटते हुए मैंने एक पाठक की नज़र से उनके काव्य व्यक्तित्व की तलाश की कोशिश की है. ज़ाहिर तौर पर यह आलोचक से अधिक एक ऐसे पाठक के दृष्टिकोण की तरह देखा जाना चाहिए जो संयोग या दुर्योग से एक कवि है. इस पूरी कवायद में देवताले मुझे एक ऐसे कवि की तरह लगे जो आजीवन अपनी कविताओं के सहारे अपने परिवेश और अपने पाठकों से बतियाने की सफल-असफल कोशिशें करता रहा. समाज के हाशिए पर पड़ी चीजों से उसका लगाव इतना गहरा है कि वह उनसे संवाद और कविता संभव करने के लिए लगातार कोशिशें करता रहता है जिसे साहित्य की भाषा में प्रयोगधर्मिता कहते हैं, और उन्हें अपनी इस भटकन का एहसास खुद है, वह जानते हैं कि ‘मैं रास्ते भूलता हूँ/ और इसीलिए मुझे नए रास्ते मिलते हैं. वह अपने लोगों से मुहब्बत के जूनून में दुश्मन बनाने वाले कवि हैं जो दुश्मन न होने को अपने हक में नहीं मानते...और ऐसा जिद्दी कवि अगर परिधि पर उपस्थित है तो केन्द्र की चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं.






     

8 टिप्‍पणियां:

  1. अशोक भाए ये जो चित्र है उज्जैन के है अरे मजा आ गया ...................देख कर..........

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  2. उज्जैन के चित्र देखकर मजा आ गया सारी यादें ताजा हो गयी...............

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  3. यह आलेख देवताले जैसे बेहद महत्वपूर्ण कवि के प्रति आलोचना की बेहिसी को झकझोरने में कामयाब है. विश्लेषण से जहां तहां मतभेद संभव हैं , लेकिन इस कार्य में झलकती हुयी लगन और मेहनत को अनदेखा नहीं किया जा सकता.

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  4. आपने देवताले जी की कविता के विविध रंगों से हमें अवगत कराया ...आभार ...वे मेरे भी प्रिय कवियों में से एक है....नयी सदी के आगमन में उठे शोर के बीच उन्होंने जो कविता लिखी थी , उसके बाद तो उन्हें खोजकर पढ़ने का सिलसिला ही चालू हो गया ...कविता थी--"सिर्फ तारीखे नहीं बदला करती समय "..."एक के आगे दो या तीन शुन्य लगाकर बेचा जा सकता है / एक चमकदार धोखा / और एक दिन / जब न्याय मांगने वाले /खोजते हुए इंधन / और पा जायेंगे डाईनामाईट/उसी दिन तय होगा कि/ यह कैसी नयी सदी है /और किनकी नयी सदी/"

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  5. "बीन बीन चिनगियाँ जो पोसता था
    छिपा कर उम्रदराज़ पेड़ों की कोटरों में
    कि चलनी ही है आँधी एक दिन
    और दहक उठना है
    उसके सपनों में उगा पूरा जंगल।"

    देव ताले जी पर बहुत मन से लिखा है आप ने. इस आलेख के बरक्स फिर से उन की कविताएं पढ़ूँगा. शुक्रिया ! भाई .

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  6. बहुत ही मेहनत और लगन से तैयार किया गया आलेख। यह आलेख आदरणीय देवताले की कविताओं को समझने-समझाने के नए कोणों की पड़ताल करता है। एक बेहद महत्वपूर्ण आलेख के लिए आपको बहुत-बदुत बधाई....

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  7. लेख ने बहुत प्रभावित किया है.धन्यवाद और बधाई भी.

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स्वागत है समर्थन का और आलोचनाओं का भी…